74 साल बाद देश में होगी जातीय जनगणना
ब्लिट्ज ब्यूरो
नई दिल्ली। मोदी कैबिनेट ने बुधवार 30 अप्रैल को एक बड़ा फैसला लिया। सरकार ने आगामी जनगणना में जातिगत गणना को शामिल करने का निर्णय लिया है। जातीय जनगणना को लेकर लंबे वक्त से विपक्षी दल मांग कर रहे थे।
केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इसकी घोषणा करते हुए कहा कि यह कदम सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देगा, साथ ही नीति निर्माण में पारदर्शिता सुनिश्चित करेगा।
क्या है जातिगत जनगणना?
जातिगत जनगणना एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें देश की आबादी को उनकी जाति के आधार पर बांटा जाता है। भारत में हर दस साल में होने वाली जनगणना में आमतौर पर आयु, लिंग, शिक्षा, रोजगार और अन्य सामाजिक-आर्थिक मापदंडों पर डेटा इकट्ठा किया जाता है। हालांकि, 1951 के बाद से जातिगत डेटा को इकट्ठा करना बंद कर दिया गया था, ताकि सामाजिक एकता को बढ़ावा मिले और जातिगत विभाजन को कम किया जा सके। फिलहाल केवल अनुसूचित जाति ( एससी ) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) की जनसंख्या का डेटा इकट्ठा किया जाता है, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और सामान्य वर्ग की जातियों का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
केंद्रीय कैबिनेट का हालिया फैसला 2025 में होने वाली जनगणना में सभी जातियों के डेटा जुटाने की दिशा में एक बड़ा बदलाव है। यह फैसला सामाजिक-आर्थिक नीतियों को और प्रभावी बनाने के लिए लिया गया है, विशेष रूप से उन समुदायों के लिए जो इससे वंचित रहे हैं।
भारत में जातिगत जनगणना का इतिहास औपनिवेशिक काल से जुड़ा है। पहली जनगणना 1872 में हुई थी और 1881 से नियमित रूप से हर दस साल में यह प्रक्रिया शुरू हुई। उस समय जातिगत डेटा इकट्ठा करना सामान्य था। हालांकि, आजादी के बाद 1951 में यह फैसला लिया गया कि जातिगत डेटा इकट्ठा करना सामाजिक एकता के लिए हानिकारक हो सकता है। इसके बाद केवल एससी और एसटी का ही डेटा इकट्ठा किया गया।
लेकिन पिछले कुछ सालों में सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव आया है। अब ओबीसी समुदाय के लिए आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं की मांग काफी बढ़ गई है। ऐसे में जातिगत जनगणना की मांग फिर से जोर पकड़ने लगी। 2011 में यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना ( एसईसीसी) की थी, लेकिन इसके आंकड़े विसंगतियों के कारण सार्वजनिक नहीं किए गए। बिहार, राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्यों ने स्वतंत्र रूप से जातिगत सर्वे किए, जिनके नतीजों ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ला दिया।
विपक्षी दल, जैसे कांग्रेस, आरजेडी और सपा लंबे समय से इसकी मांग कर रहे थे। बीजेपी का सहयोगी दल जेडीयू भी जातीय जनगणना के पक्ष में था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे सामाजिक न्याय का आधार बताते हुए 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रमुख मुद्दा बनाया था। क्षेत्रीय दलों का मानना है कि जातिगत आंकड़े नीति निर्माण में मदद करेंगे, जबकि केंद्र सरकार ने पहले इसे प्रशासनिक रूप से जटिल और सामाजिक एकता के लिए खतरा माना था।
जातिगत जनगणना के क्या हो सकते हैं फायदे?
जातिगत जनगणना के समर्थकों का मानना है कि यह सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है। उनका कहना है कि जातिगत आंकड़े सरकार को विभिन्न समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे। उदाहरण के लिए, यह पता लगाया जा सकता है कि कौन सी जातियां शिक्षा, रोजगार, और स्वास्थ्य सेवाओं में सबसे ज्यादा वंचित हैं। इससे कल्याणकारी योजनाओं को और प्रभावी बनाया जा सकता है। इसके अलावा ओबीसी और अन्य वंचित समुदायों की सटीक जनसंख्या के अभाव में आरक्षण नीतियों को लागू करना और संसाधनों का उचित वितरण करना मुश्किल रहा है। मंडल आयोग (1980) ने ओबीसी की आबादी को 52 प्रतिशत माना था, लेकिन यह अनुमान पुराने डेटा पर आधारित था। नए आंकड़े आरक्षण की सीमा और वितरण को और पारदर्शी बना सकते हैं। जातिगत जनगणना से उन समुदायों की पहचान हो सकेगी जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहे हैं। जातिगत डेटा सामाजिक असमानताओं को उजागर करेगा, जिससे सरकार और समाज को इन मुद्दों को संबोधित करने का अवसर मिलेगा। उदाहरण के लिए अगर किसी विशेष जाति की आय या शिक्षा का स्तर राष्ट्रीय औसत से काफी कम है, तो इसे सुधारने के लिए नीतियां बनाई जा सकती हैं। जातिगत जनगणना के कई फायदे हैं, लेकिन इसके संभावित नुकसान और जोखिम भी कम नहीं हैं। आलोचकों का मानना है कि यह सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर कई चुनौतियां पैदा कर सकता है। आलोचकों का तर्क है कि जातिगत जनगणना समाज में पहले से मौजूद जातिगत विभाजन को और गहरा कर सकती है। वहीं जातिगत आंकड़ों का उपयोग राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक की राजनीति के लिए किया जा सकता है। क्षेत्रीय दल और जातिगत आधार पर संगठित पार्टियां इसका लाभ उठाकर सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे सकती हैं। इससे सामाजिक तनाव और हिंसा की संभावना बढ़ सकती है।
जातिगत जनगणना से कुछ समुदायों की जनसंख्या अपेक्षा से अधिक हो सकती है, जिससे आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग उठ सकती है, जिससे सामाजिक अशांति बढ़ सकती है। जातिगत जनगणना का प्रभाव केवल सामाजिक और आर्थिक नीतियों तक ही सीमित नहीं रहेगा।
यह भारत की राजनीति को भी गहरे रूप से प्रभावित करेगा। बिहार के जातिगत सर्वेक्षण (2023) के बाद, जहां ओबीसी और ईबीसी की आबादी 63 प्रतिशत बताई गई, विपक्षी दलों ने इसे 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रमुख मुद्दा बनाया। इससे विपक्षी गठबंधन को कई क्षेत्रों में इसका लाभ मिला।
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