मोदी का मास्टर स्ट्रोक
ब्लिट्ज ब्यूरो
बहुत संभव है कि जब तक इस जातीय जनगणना की प्रक्रिया पूरी होगी अथवा उसके परिणाम आने शुरू होंगे तब तक भारत पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बन चुका होगा और यह एकदम अलग देश होगा। ऐसे में इसके नतीजों के आधार पर नीतियों को बनाना भी किसी चुनौती से कम नहीं होगा।
मोदी सरकार ने अंतत: जाति जनगणना कराने का अप्रत्याशित निर्णय कर ही लिया। लगभग 100 वर्षों बाद देश में पूर्ण जाति जनगणना कराई जाएगी। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि 2031 के आस-पास हमें जातियों के प्रमाणिक आंकड़े मिल सकेंगे। इसके पहले अंतिम जाति जनगणना 1931 में अंग्रेजों ने कराई थी। उसके बाद से देश में किसी भी सरकार ने जातिगत जनगणना कराए जाने की आवश्यकता नहीं समझी। हालांकि समय-समय पर इसकी मांग जरूर हुई। मनमोहन सिंह की सरकार ने कुछ क्षेत्रीय दलों के दबाव में 2011 में सर्वेक्षण की सूरत में सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना अवश्य कराई थी पर उलझाने वाले आंकड़ों की वजह से उसे कभी सार्वजनिक नहीं किया गया।
यद्यपि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी जातिवार जनगणना कराए जाने की मांग बहुत जोर-शोर से करते रहे हैं जबकि कांग्रेस कभी भी जातिगत जनगणना के पक्ष में नहीं रही। वैसे भाजपा और कांग्रेस, दोनों ही समय-समय पर इस मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण बदलते रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इस पर अपना रुख बदला है। देश के विपक्षी दल इसके लिए मांग करते रहे हैं और विशेष रूप से कांग्रेस तो यह कहती रही है कि ‘जिसकी जितनी भागीदारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी’ होनी चाहिए। कांग्रेस यह आरोप भी लगाती रही है कि मोदी सरकार जातिगत जनगणना नहीं कराना चाहती ताकि समाज का वंचित वर्ग कभी आगे न बढ़ पाए। पर अब जब मोदी सरकार ने जातिगत जनगणना कराने का मास्टर स्ट्रोक चल दिया है तो राजनीतिक हलकों में इसे मोदी सरकार की विपक्ष पर पॉलिटिकल स्ट्राइक की संज्ञा दी जा रही है जबकि विपक्षी दलों में अब जाति जनगणना के निर्णय का श्रेय लेने की होड़ सी मच गई है।
दरअसल मोदी सरकार ने यह फैसला तब लिया है जब विपक्षी दलों को इसकी बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी। सबका ध्यान पहलगाम आतंकी हमले पर था और विपक्ष मोदी सरकार के साथ खड़ा था। इस निर्णय को बिहार के आगामी चुनावों से भी जोड़कर देखा जा रहा है, जहां तेजस्वी यादव और राहुल गांधी जातिगत जनगणना को अपना प्रमुख चुनावी एजेंडा बना कर मोदी- नीतीश को चुनाव के मैदान में शिकस्त देना चाह रहे थे।
अब सवाल यह है कि इस जातिगत जनगणना का अगर सार्थक इस्तेमाल नहीं हो पाया तो इससे देश में मतभेद और बढ़ सकते हैं। समाज के लिए यह विभेदकारी और वैमनस्यता बढ़ाने वाली भी बन सकती है। यह कड़वा सच है कि इस देश की राजनीति सदा से ही धर्म और जातियों के इर्द-गिर्द अपना ताना-बाना बुनती आ रही है। पिछड़ा वर्ग एक बड़ा वोट बैंक है। सभी उसे लुभाने के लिए आरक्षण की हदें पार कर देना चाहते हैं। यह किसी भी दृष्टि से देशहित में नहीं होगा। यह जरूरी है कि समाज में जो पिछड़े हैं, उन्हें आगे बढ़ने के हर वो अवसर मिलने चाहिए जिन पर उनका हक है पर कहीं ऐसा न हो कि आरक्षण देने की होड़ में योग्यता की अहमियत को बिल्कुल हाशिये पर न डाल दिया जाए। हमारे मनीषियों ने हमें योग्यता की कद्र करने का जो मूल मंत्र दिया था; राजनीति के फेर में उसको भुलाना नहीं चाहिए। समाज सुधारक के रूप में विख्यात
संत काव्यधारा के प्रमुख कवि कबीर दास जी का नाम इस समय याद आना स्वाभाविक है। कबीरदास जी ने धर्म का सम्बन्ध सत्य से जोड़कर समाज में व्याप्त रूढ़िवादी परम्परा का खण्डन किया। वह कहते हैं कि ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान’ यानी कि साधु की कोई जाति नहीं होती है। उसकी जाति नहीं पूछनी चाहिए। साधु का ज्ञान जात–पात से परे होता है। किसी भी व्यक्ति की विद्वता उसका ज्ञान है जो उसके जात-पात के बंधनों से मुक्त होता है। अत: आवश्यकता इस बात की भी है कि हमें जातिगत जनगणना के साथ-साथ सामाजिक मूल्यों तथा सभी के लिए विकास के समान अवसर भी सुनिश्चित करने होंगे। तभी जातिगत जनगणना का मकसद सार्थक हो सकेगा और सामाजिक समरसता कायम रहेगी। अब जल्द से जल्द जनगणना करना भी आवश्यक है। कोविड-19 महामारी के कारण 2020 में होने वाली दशकीय जनगणना को टाल दिया गया था। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़ों के मुताबिक 2011 में जब भारत में पिछली जनगणना हुई थी तब हमारी अर्थव्यवस्था का आकार 1.8 लाख करोड़ डॉलर था। बहुत संभव है कि जब तक इस जातीय जनगणना की प्रक्रिया पूरी होगी अथवा उसके परिणाम आने शुरू होंगे, तब तक भारत पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बन चुका होगा और यह एकदम अलग देश होगा। ऐसे में इसके नतीजों के आधार पर नीतियों को बनाना भी किसी चुनौती से कम नहीं होगा।
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