राष्ट्रपति मुर्मू के प्रश्न
दीपक द्विवेदी
वैसे राष्ट्रपति के अधिकांश प्रश्न 8 अप्रैल के फैसले से ही जुड़े हैं लेकिन अंतिम कुछ प्रश्नों में सुप्रीम कोर्ट की स्वयं की शक्तियों पर भी सवाल उठाए गए हैं। दरसल ये सवाल ऐसे हैं जिन पर स्पष्टता की आवश्यकता है और महत्वपूर्ण बात यह है कि इन्हें संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए और इनका सर्वसम्मत समाधान तलाशा जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की तरफ से राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए विधेयकों पर फैसला लेने की समय सीमा तय किए जाने का मुद्दा फिर सुर्खियां बटोर रहा है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट को चिट्ठी लिखकर 14 सवाल पूछे हैं और उसके 8 अप्रैल के फैसले पर स्पष्टीकरण मांगा है। सुप्रीम कोर्ट के जजों; जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की दो सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि विधेयक पर फैसला तीन महीने के अंदर नहीं लिया गया तो राष्ट्रपति को इसके पीछे का उचित तर्क बताना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में संविधान के अनुच्छेद 201 का हवाला देकर कहा था कि उसके पास राष्ट्रपति के निर्णय की समीक्षा करने का अधिकार है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय की कई बार कड़े शब्दों में आलोचना की है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा सुप्रीम कोर्ट से पूछे गए सवालों पर विशेषज्ञों का कहना है कि ये आगे का रास्ता तय करेंगे। इसके अलावा कुछ ने सुप्रीम कोर्ट पर सवाल उठाए जाने को लेकर चिंता भी जताई है। भारत सरकार के पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल और वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाए जाने पर कहा कि यह मामला संघवाद और नागरिकों के शासन के अधिकार के बारे में गंभीर चिंताएं पैदा करता है। मुख्य रूप से संवैधानिक मुद्दा यह है कि क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक प्राधिकारी निर्वाचित राज्य सरकारों द्वारा पारित कानूनों में देरी कर सकते हैं या अनिश्चितकाल के लिए रोक सकते हैं? लूथरा ने कहा कि मेरे विचार से राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संदर्भ यह तय करने के लिए हैं कि आगे का रास्ता क्या है और सुप्रीम कोर्ट किस हद तक राज्यपालों और राष्ट्रपति को कार्य करने का निर्देश देगा? न्यायालय किस हद तक राज्यपालों और राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र को निर्धारित करेंगे और उस पर नियंत्रण रखेंगे? उन्होंने कहा कि आज मुद्दा यह भी है कि क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति किसी कानून पर नियंत्रण रख सकते हैं?
इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतांत्रिक प्रणाली में न्यायिक सक्रियता का होना भी अत्यंत आवश्यक है ताकि कार्यपालिका निरंकुश न हो जाए किंतु न्यायपालिका की अति सक्रियता भी विवादों को जन्म देती है। इसके अतिरिक्त न्यायपालिका अगर जरूरत से अधिक सक्रिय हो जाएगी एवं संविधान को नजरअंदाज कर अपनी सीमाएं लांघती सी दिखने लगेगी तो फिर उससे भी सवाल किया जाना कहीं न कहीं आवश्यक सा प्रतीत होने लगता है। इसी क्रम में यह जरूरी था कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू सुप्रीम कोर्ट से अन्य प्रश्नों के साथ यह सवाल भी पूछतीं कि जब संविधान में विधेयकों की मंजूरी के लिए समय सीमा का प्रावधान ही नहीं है तो फिर वह यह काम कैसे कर सकता है? राष्ट्रपति को ऐसे कई सच इसलिए पूछने पड़ रहे हैं, क्योंकि कुछ समय पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु मामले में अपने निर्णय में वहां के राज्यपाल को आदेशित किया था कि उन्हें विधानसभा से पारित विधेयकों पर तय समय में फैसला लेना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा और यदि तय समय सीमा में फैसला नहीं लिया जाता तो राष्ट्रपति को राज्य को इसका कारण बताना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने इससे आगे बढ़ कर ऐसे किसी विषय पर राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से सलाह तक लेने को भी कह दिया था। ऐसा आदेश देकर सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से राज्यपाल और राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्तियों में बदलाव भी कर दिया। अथवा विशेषज्ञों के मतानुसार इसे यूं भी कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में स्वयं ही एक नया प्रावधान जोड़ दिया जबकि संविधान में कोई बदलाव इस ढंग से नहीं किया जा सकता। किसी के लिए भी यह समझना मुश्किल है कि ऐसा किस अधिकार के तहत किया गया? यही नहीं; इससे भी अनोखी बात यह थी कि सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के पास विचार के लिए रखे तमिलनाडु के विधेयकों को स्वयं स्वीकृति देकर उनके कानून बनने का रास्ता साफ कर दिया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसके पहले ऐसा कभी नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से राज्यपाल और राष्ट्रपति, दोनों की शक्तियों को ही अपने हाथ में ले लिया था। इसी वजह से इस फैसले पर सवाल किए गए थे और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने तो सुप्रीम कोर्ट को निशाने पर लेते हुए तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी।
सुप्रीम कोर्ट के इस अतिविवादित और चौंका देने वाले निर्णय पर इसलिए और भी प्रश्न उठे क्योंकि यह निर्णय दो न्यायाधीशों की पीठ ने दिया था, किसी संविधान पीठ ने नहीं। इसीलिए इसे न्यायिक सीमा के दायरे के बाहर दिया गया फैसला करार दिया जा रहा है। यह सही है कि विपक्ष की सरकारों वाले राज्यों में अक्सर राज्यपाल फैसले देर से देते हैं अथवा लटका देते हैं। इस समस्या का समाधान जरूरी है पर इसका संविधान सम्मत तरीके से विचार कर के हल निकाला जाना चाहिए। वैसे राष्ट्रपति के अधिकांश प्रश्न 8 अप्रैल के फैसले से ही जुड़े हैं लेकिन अंतिम कुछ प्रश्नों में सुप्रीम कोर्ट की स्वयं की शक्तियों पर भी सवाल उठाए गए हैं। दरअसल ये सवाल ऐसे हैं जिन पर स्पष्टता की आवश्यकता है और महत्वपूर्ण बात यह है कि इन्हें संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए और इनका सर्वसम्मत समाधान तलाशा जाना चाहिए।
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